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जीवनी/आत्मकथा >> आवारा मसीहा

आवारा मसीहा

विष्णु प्रभाकर

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :354
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 679
आईएसबीएन :9788170280040

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प्रस्तुत है बंगला के शरदचन्द्र चट्टोपाध्याय की प्रमाणिक जीवन-गाथा....

Awara Masiha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शरतचन्द्र चटर्जी की गणना भारत के ऐसे उपन्याकारों में की जाती है जो सच्चे अर्थों में देशभर में अत्यन्त लोकप्रिय थे। उनकी प्रायः सभी रचनाओं का अनुवाद भारत की सभी भाषाओं में हुआ और वे खूब चाव से बार बार पढ़ी गयी,आज भी पढी जाती है। परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि एकाध को छोड़कर उनकी कोई भी संतोषजनक जीवनी बाँगला में भी उपलब्ध नहीं है। इस कार्य को पूरा करने का बीड़ा अनेक वर्ष पूर्व श्री विष्णु प्रभाकर ने उठाया था। वे स्वयं प्रथम श्रेणी के कथाकार हैं और शरत् में गहरी आस्था रखते हैं, उन्होंने यात्रा-पत्र-व्यवहार, भेंटवार्ता आदि अब तक के समस्त उपायों और साधनों से इस कार्य को पूर्ण किया है, जो कि इस ग्रन्थ में प्रस्तुत है। यह जीवन चरित्र न केवल बहुत विस्तार से उन पर प्रकाश डालता है अपितु उनके जीवन के कई अज्ञात पहलुओं को भी उजागर करता है। इस पुस्तक के लेखक विष्णु प्रभाकर की गणना हिन्दी के प्रमुख साहित्यकारों में की जाती है। वे 1931 से आज तक बराबर लिख रहे हैं।

प्रस्तावना

‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था। पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को। इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं।
जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही डर रहा था कि कहीं बंगाली मित्र मेरी कुछ स्थापनाओं को लेकर क्रुद्ध न हो उठें। लेकिन मेरे हर्ष का पार नहीं था जब सबसे पहला पत्र मुझे एक बंगला भाषा की पत्रिका के संपादक का मिला। उन्होंने लिखा था कि आपने एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण और चिरस्थायी कार्य किया जो हम नहीं कर सके।
मैं तो जैसे जी उठा। वैसे कुछ अपवादों को छोड़कर सभी पाठकों ने मुझे साधुवाद दिया। उन पाठकों में सभी वर्गों और श्रेणियों के व्यक्ति थे। तब से यह क्रम अभी तक जारी है।

इसकी रचना प्रक्रिया पर प्रथम संस्करण की भूमिका में मैंने विस्तार से प्रकाश डाला है। उसके प्रकाशित होने के बाद मुझे यह आशा थी कि शायद कुछ और तथ्य सामने आयें लेकिन तीसरा संस्करण प्रकाशित होने तक कुछ विशेष उपलब्धि नहीं हुई परंतु कुछ ऐसी घटनाएँ अवश्य सामने आईं जो उनके चरित्र को और उजागर करती थीं। उनका वर्णन तीसरे संस्करण की भूमिका में (सितम्बर 1977) किया। वे सब अंश संस्करण की भूमिका में भी शामिल कर लिए गए हैं।
दूसरे संस्करण में टंकण और मुद्रण या किसी और प्रमादवश जो अशुद्धियाँ रह गई थीं। उन्हें भी ठीक कर दिया था। यहाँ-वहाँ आए कुछ उद्धरण या तो निकाल दिए थे या उनके कलेवर कुछ कम कर दिया था।
मैंने उस संस्करण में बंगला शब्दों का प्रचुरता से प्रयोग किया था। समीक्षकों और सुधी पाठकों के सुझाव पर उन्हें भी कम कर दिया। महात्मा गाँधी पर शरत् बाबू ने जो मार्मिक लेख लिखा था उसे परिशिष्ट में दे दिया था। उस लेख को देने का कारण यह था कि शायद सभी लोग उन्हें गाँधी जी का कट्टर विरोधी मानते थे पर उस लेख में शरत् बाबू ने उनका जो विश्लेषण प्रस्तुत किया है, उनके प्रति विरोध के रहते भी जो गहरी आस्था प्रकट की है, वह अद्भुत है।
उसे परिशिष्ट में देने का कारण यह था कि तीसरे खंड में भारीपन की जो शिकायत कुछ मित्रों ने की थी वो कम हो जाए। शायद हुई भी है।

शरत बाबू की जन्म शताब्दी के उत्सव सितम्बर 1977 तक समाप्त हो गए थे। उस समय बंगला में उन्हें लेकर बहुत कुछ लिखा गया। उन्हें फिर से खोजने की चेष्टा की गयी। मुझे आशा थी कि सम्भवतः उनके जीवन के सम्बन्ध में कुछ नए तत्व उजागर हों। कहने को कुछ हुए भी पर उनमें कोई ऐसा नहीं था जो पुस्तक की मूल स्थापनाओं को प्रभावित कर सकता।
फिर भी कुछ बातें ऐसी हैं जिनका उल्लेख करना आवश्यक है। गुजराती में सबसे पहले सन् 1925 के आसपास महात्मा गाँधी के आदेश पर उनकी कुछ रचनाओं का अनुवाद श्री महादेव देसाई ने किया था। वे रचनाएँ थीं ‘विराज बहू’, ‘बिन्दो का लल्ला’, ‘राम की सुमति’, और ‘मंझली दीदी’।
उनके मधुर कंठ की चर्चा इस पुस्तक में विस्तार से हुई है। पर उनका रचा कोई गीत भी है इसकी प्रमाणिक जानकारी मुझे नहीं थी। श्री सत्येश्वर मुखोपाध्याय ने अपने लेख ‘सुर-प्यारी शरच्चन्द्र’ में यह दावा किया है कि ‘षोडशी’ नाटक का यह गीत उन्हीं की रचना है-

तोर पावार छिल जखन
ओरे अबोध मन
मरण खेलार नेशाए मेते
रइलि अचेतन।
ओरे अबोध मन।
तखन छिल मणि, छिलर माणिक
पथेर धारे,
एखन डूबल तारा दिनेर शेषे
विषम अन्धकारे।
औज मिथ्ये जे तोरे खोंजा खूंजि
मिथ्ये चोखेर जल
तारे कोथाय पाबि बल ?
तारे अतल तले तलिये गेल
शेष साधनार धन।
ओरे अबोध मन।

हिरण्मयी देवी के विवाह को लेकर एक बार फिर विवाद उठ खड़ा हुआ था। लेकिन वसीयतनामे में शरत बाबू ने उन्हें अपनी पत्नी स्वीकार किया है। वही हमारे लिए सत्य है। शास्त्रसम्मत विधि विधान से उन्हें यह पद मिला अथवा हृदय के मिलन द्वारा-यह विवाद अब अर्थ खो बैठा है।
वे मुक्त मन से क्रांतिकारियों की आर्थिक सहायता करते थे यह बात भी इस पुस्तक में बार-बार कही गई है। इस बात को प्रमाणित करने वाले कुछ और तथ्य सामने आए हैं।
हेनरी वुड के उपन्यास ‘इस्टलीन’ के आधार पर शरच्चन्द्र ने एक उपन्यास ‘अभिमान’ लिखा था जिसे पढ़कर एक युवक इतना क्रुद्ध हुआ कि उनसे मारपीट करने के लिए तैयार हो गया था। श्री गोपालचन्द्र राय का अनुमान है कि वह युवक ब्रह्मसमाजी रहा होगा, क्योंकि ‘अभिमान’ में एक ब्रह्मसमाज परिवार की नारी अपने पहले पति को त्यागकर दूसरा विवाह कर लेती है। ‘इस्टालीन’ जिस परिवेश का उपन्यास है उस परिवेश में ऐसा करना पाप नहीं समझा जाता था परन्तु इस युग के भारतीय परिवेश में ऐसा चित्रित निस्संदेह निंदनीय समझा जाता था।

एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य जिसका उल्लेख करना आवश्यक है, वह यह है कि श्रीमती निरुपमा देवी ने पत्र लिखकर उनसे प्रार्थना की थी कि वे अपनी रचनाओं में विधवा चरित्र की आलोचना न करें। तब उन्होंने निरुपमा देवी को वचन दिया था : ‘‘तुम्हारे मन को आघात पहुँचाकर ऐसा कुछ कभी नहीं लिखूँगा।’’
निरुपमा देवी से उनके सम्बन्धों की विवेचना करते समय इस तथ्य को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। मेरी स्थापना को इससे समर्थन ही मिलता है।
उनके अपने चरित्र के विभिन्न पहलुओं को उजागर करने वाली कुछ और कथाएँ सामने आई हैं। उनमें से दो घटनाओं का हम उल्लेख करना चाहेंगे।
एक रात वह अचानक सोते-सोते जाग पड़े। गाँव में शोर मच रहा था। बीच-बीच में किसी का चीत्कार भी सुनाई दे जाता था। वह विचलित हो उठे। तुरन्त बाहर आए। पता लगा कि दो युवक चोरी करते हुए पकड़े गए हैं, उन्हीं को गाँववाले पीट रहे हैं।

पशु का क्रन्दन सुनकर जो विकल हो उठते थे वह मनुष्य को पिटते देखकर कैसे शान्त रह सकते थे। तुरन्त घटनास्थल पर पहुँचे। लोगों को समझाया-बुझाया। कहा कि मारो मत। चोरी की है तो पुलिस को सूचना दो।
गाँव वालों ने उनकी बात मान ली। शरदबाबू उन दोनों युवकों को अपने घर ले गए। पुलिस के आने तक वे वहीं रहे। बेचारों के प्राण बचे।
लेकिन जब पुलिस उनको लेकर चली गई तब क्या हुआ उनको। दिन चढ़ गया पर वे कमरे से बाहर नहीं निकले। हिरण्मयी देवी ने अनुनय-विनय की। मित्र आए पर वे रोते ही रहे। कहते रहे, कितना बड़ा पाप किया मैंने। दो युवकों को चोर बना दिया। उन्हें पुलिस को सौंप दिया। वहाँ से आने पर वे दागी चोर बन कर ही निकलेंगे।
वह जितने सम्वेदनशील थे उतने ही दृष्टा भी थे, और उतनी ही तीव्र थी उनकी सूक्ष्य पर्यवेक्षण शक्ति। एक दिन उन्होंने अचानक अपने मित्रों से कहा, ‘‘आओ, किसी गाँव में चला जाए।’’

मित्र लोग तैयार हो गए और शहर से सात-आठ मील दूर दुर्गापुर गाँव की ओर चल पड़े। जैसे ही गाँव के पास पहुँचे तो कुत्तों ने जोर-जोर से भौंकते हुए उनका स्वागत किया।।’’
मित्र लोग उन्हें डाँटने लगे तो शरद् बाबू ने उन्हें रोक दिया, ‘‘वे अपना काम कर रहे हैं। अभी चुप हो जाएँगे। बढ़िया कुत्ते हैं।’’
एकदम देसी कुत्ते थे। बढ़िया कैसे हो सकते हैं यह बात मित्रों की समझ में नहीं आई पर उन्हें गाँव में जाना था। गए, गाँव के पुरुषों से कथा-वार्ता हुई। शरद बाबू खूब प्रसन्न हुए।
लौटते समय गाड़ी में बैठे-बैठे शरद बाबू ने, जैसा कि उनका स्वभाव था, खूब बातें कीं। कुत्तों की चर्चा भी हुई। वह बोले, ‘‘देखो, कुत्ते गाँव के लोगों की आर्थिक स्थिति का थर्मामीटर होते हैं। अगर गाँव के कुत्ते खूब हृष्ट-पुष्ट हैं तो समझ लो कि गाँव के लोगों को खाने-पीने का अभाव नहीं है। यहाँ यही सब देखने को मिला।’’
मुजफ्फरपुर प्रवास के बारे में और ‘देवदास’ उपन्यास के चरित्रों के बारे में भी लेख पढ़ने को मिले पर ‘आवारा मसीहा’ में जैसा वर्णन मैंने किया है, उन लोगों के कारण उसमें कोई संशोधन करने की आवश्यकता मुझे महसूस नहीं हुई।
बनारस के श्री विश्वनाथ मुखर्जी (अब स्वर्गीय) ने श्री शरद बाबू की एक और जीवनी लिखी है। मैं उसे पढ़ नहीं पाया पर जिन मित्रों ने पढ़ा उन्होंने उनकी प्रशंसा की पर यह भी कहा कि उनके कारण ‘आवारा मसीहा’ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला।

मेरे समीक्षक मित्रों ने मेरी रचना का जहाँ मुक्त मन से स्वागत किया वहीं कुछ ने आलोचना भी की। कुछ त्रुटियों की ओर भी संकेत किया, कुछ सुझाव भी दिए। कृतज्ञ भाव से उस दिशा में जो कुछ कर सकता था मैंने किया है। जो नहीं कर सका उसका मु्ख्य कारण था प्रामाणिकता का अभाव। कहीं-कहीं मतभेद भी है, जो स्वाभाविक है।
इसके रचनाकाल में कैसी-कैसी कठिनाइयाँ मेरे सामने आईं, उसकी एक झलक मैंने प्रथम संस्करण की भूमिका में दी है पर उससे मेरे समीक्षक और पाठक संतुष्ट नहीं हो सके। सबकी चर्चा करना तो कई कारणों से अब भी संभव नहीं होगा पर एक बात की ओर संकेत अवश्य करना चाहूँगा। शरद बाबू का जीवन क्रम इतना उलझा हुआ, इतना विश्रृंखल है कि उसमें तारतम्य बैठाना, उसके क्रम को ठीक करना बड़ा दुष्कर कार्य है। कौन-सी घटना कब, कैसे घटी, कब कहाँ रहे, कितने दिन रहे, कौन-सा भाषण कब दिया, क्या ठीक-ठीक कहा, इसका लेखा-जोखा कहीं उपलब्ध नहीं है। जो है वह एकदम विश्रृंखल है। उसकी तलाश में मुझे बरसों यहाँ-वहाँ भटकना पड़ा। ज्योतिषियों की शरण ली, विश्वविद्यालय के कैलेंडर देखे, स्कूल-कालेज के रजिस्टर टटोले, पुरानी पत्रिकाएँ ढूँढ़ीं, तब कुछ रूप दे सका।
वह भागलपुर से कब भागे, इसका कुछ-कुछ सही पता तब चला जब भागलपुर में ही रचित और हस्तिलिखित पत्रिका में प्रकाशित उनकी जुलाई सन् 1901 की एक रचना देखने में आई। दिसंबर 1902 के अन्त में उन्होंने अपनी बहन के घर गोविदंपुर से मामा गिरीन्द्रनाथ को जो पत्र लिखा था वह मुझे दिल्ली में ही उनके पुत्र श्री अमलकुमार गांगुली के सौजन्य से सन् 1973 में मिल सका। उसके मिलने से बहुत-सी तिथियाँ आप से आप ठीक हो गईं। वह वहाँ से कब लौटे, इसकी तिथि भी अनुमान प्रमाण के सहारे निश्चित की गई है। नहीं तो एक लेखक ने उन्हें उसके बाद भी रंगून में रवीन्द्रनाथ से मिलते दिखाया है।

उनके प्रायः सभी जीवनीकारों ने लिखा है कि उन्होंने मैट्रिक दिसंबर सन् 1894 में पास किया लेकिन जब मैंने विश्वविद्यालय जाकर कैंलेंडर देखा तो परीक्षाएं सोमवार 12 फरवरी सन् 1894 में आरम्भ हुईं। परीक्षाफल अधिक से अधिक अप्रैल 1894 में घोषित हुआ होगा। कैलेंडर में वह दिसम्बर में ही छप सका। उसी को देखकर सबने मान लिया कि उन्होंने दिसंबर 1894 में मैट्रिक पास किया। यदि ऐसा हुआ होता तो वे उस वर्ष कालेज में प्रवेश कैसे पा सकते थे ?
बंगाली निश्चित रूप से बंगाब्द का प्रयोग करते हैं। इसलिए मेरे सामने एक और समस्या थी कि इन तिथियों को ईसवी सन् के अनुसार तिथियों में कैसे परिवर्तित करूँ। पुराने कैंलेंडरों की तलाश में अनेक मित्रों और पुस्तकालयों की शरण लेनी पड़ी क्योंकि तिथियों का अपना महत्व है। जो ज्योतिषशास्त्र में विश्वास करते हैं, वे इस बात को खूब समझते हैं।
‘आवारा मसीहा’ नाम को लेकर काफी ऊहापोह मची। वे-वे अर्थ किए गए जिनकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मैं तो इस नाम के माध्यम से यही बताना चाहता था कि कैसे एक आवारा लड़का अन्त में पीड़ित मानवता का मसीहा बन जाता है। आवारा और मसीहा दो शब्द हैं। दोनों में एक ही अन्तर है। आवारा मनुष्य में सब गुण होते हैं पर उसके सामने दिशा नहीं होती। जिस दिन उसे दिशा मिल जाती है उसी दिन वह मसीहा बन जाता है। मुझे खुशी है कि अधिकांश मित्रों ने इस नाम को इसी सन्दर्भ में स्वीकार किया।
यह संस्करण आते-आते मुझे कुछ घटनाओं और तथ्यों के बारे में भी जानकारी मिली। पृष्ठ 138 पर उनके मामा उपेन्द्रनाथ उन्हें खोजते-खोजते जब वेश्यालय गए और शरत् के बारे में पूछा तो उन्हें जो उत्तर मिला वह ऐसे था, ‘ओह, दादा ठाकुर के बारे में पूछते हैं। ऊपर चले जाओ। सामने ही पुस्तकों के बीच में जो मानुष बैठा है वही शरत् है।’
पृष्ठ 225 पर ‘पथेर दाबी’ के जब्त होने की तारीख सरकारी दस्तावेज के अनुसार जनवरी 1927 है, अर्थात् 31 अगस्त 1926 को प्रकाशित होने के चार माह बाद पुस्तक जब्त हुई।

पृष्ठ 397 पर प्रेमचन्द के कहानी संग्रह पर अपनी सम्पति देते हुए उनकी बहुत प्रशंसा की पर साथ ही यह भी लिखा कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के साथ उनकी तुलना करना अनुचित है। उन्होंने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि इस पुस्तक की भूमिका में श्री मन्नन द्विवेदी ने लिखा था, ‘कुछ लोगों का विचार है कि आपकी गल्प साहित्यमार्त्तण्ड रवीन्द्र बाबू की रचना से टक्कर लेती है।’’
‘सप्त सरोज’ में निम्नलिखित कहानियाँ संकलित थीं-1. बड़े घर की बेटी 2. सौत 3. सज्जनता का दंड 4. पंच परमेश्वर 5. नमक का दारोगा 6. उपदेश और 7. परीक्षा। प्रथम खंड अध्याय 10 में राजा शिवचन्द्र की चर्चा आई। वे तत्कालीन सुधारक दल के नेता माने जाते थे। वे इतने प्रसिद्ध हो गए थे कि उनके बारे में एक कहावत बन गई थी-
राज न पाट शिवचन्द्र राजा
ढोल न ढाक अंगरेज़ी बाजा
आज भी लोग इस कहावत का प्रयोग करते हैं।
यहाँ एक बात और स्पष्ट कर दूँ। ‘आवारा मसीहा’ में आई किसी घटना के बारे में मैंने कल्पना नहीं की। जितना और जैसी जानकारी पा सका हूँ उतना ही मैंने लिखा है। प्रथम पुरुष के रूप में उनके मुख से जो कुछ कहलवाया है, वह सब उनके मित्रों के संस्मरणों से लिया है जो उसके साक्षी रहे हैं। यथासम्भव उन्हीं की भाषा का प्रयोग मैंने किया है। प्रामाणिकता की दृष्टि से एक दो स्थानों पर उनकी रचनाओं में आए उन्हीं स्थलों के वर्णन का भी सहारा लिया है पर ऐसा बहुत कम किया है। मैंने अगर स्वतंत्रता ली भी है तो उतनी ही जितनी एक अनुवादक ले सकता है।
मनचाहा तो कभी होता नहीं पर विसंगतियों और असंगतियों के बावजूद मित्रों ने, विशेषकर बंगाली मित्रों ने मेरे इस तुच्छ प्रयत्न का जैसा स्वागत किया है उससे मेरा उत्साह ही बढ़ा है। प्रसन्नता की बात है कि इसका अनुवाद अंग्रेजी तथा भारत की लगभग सभी प्रभुख भाषाओं में हो चुका है। उन सबके प्रति मैं नतमस्तक हूँ।

अन्त में शरच्चन्द्र के प्रति नतमस्तक होकर बंगला के मूर्धन्य कवि नजरूल इस्लाम के शब्दों में इतना ही कहूँगा-

अवमाननार अतल गहरे ये मानुष छिलो लुकाये
शरतचांदेर ज्योत्सना तादेर राजपथ दिखाए

-विष्णु प्रभाकर

भूमिका



पहले संस्करण की



कभी सोचा भी न था कि एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्-चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर, बम्बई, के स्वामी श्री नाथूराम प्रेमी ने शरत्-साहित्य का प्रामाणिक अनुवाद हिन्दी में प्रकाशित किया है। उनकी इच्छा थी कि इसी माला में शरत्-चन्द्र की एक जीवनी भी प्रकाशित की जाए। उन्होंने इसकी चर्चा श्री यशपाल जैन से की और न जाने कैसे लेखक के रूप में मेरा नाम सामने आ गया। यशपालजी के आग्रह पर मैंने एकदम ही यह काम अपने हाथ में ले लिया हो, ऐसा नहीं था, लेकिन अन्ततः लेना पड़ा, यह सच है। इसका मुख्य कारण था शरत्-चन्द्र के प्रति मेरी अनुरक्ति। उनके साहित्य को पढ़कर उनके जीवन के बारे में विशेषकर श्रीकान्त और राजलक्ष्मी के बारे में, जानने की उत्कट इच्छा कई बार हुई है। शायद वह इच्छा पूरी होने का यह अवसर था। सोचा, बंगला साहित्य में निश्चिय ही उनकी अनेक प्रामाणिक जीवनियां प्रकाशित हुई होंगी। लेख-संस्मरण तो न जाने कितने लिखे गये होंगे। वहीं से सामग्री लेकर यह छोटी-सी जीवनी लिखी जा सकेगी। लेकिन खोज करने पर पता लगा कि प्रामाणिक तो क्या, कल्पित कहानी को जीवनी का रूप देकर अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, पर उनमें शरत् बाबू का वास्तविक रूप तो क्या प्रकट होता वह और भी जटिल हो उठा है।
अब मैंने इधर-उधर खोज आरम्भ की लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, उलझता ही गया। ढूंढ़-ढूंढ़कर मैं उनके समकालीन व्यक्तियों से मिला। बिहार, बंगाल, बर्मा, सभी जगह गया। लेकिन कहीं भी तो, कुछ भी उत्साहजनक स्थिति नहीं दिखाई दी।
प्रायः सभी मित्रों ने मुझसे कहा, ‘‘तुम शरत् की जीवनी नहीं लिख सकते। अपनी भूमिका में यह बात स्पष्ट कर देना कि शरत् की जीवनी लिखना असम्भव है।’’
ऐसे भी व्यक्ति थे जिन्होंने कहा, ‘‘छोड़ा भी, क्या था उसके जीवन में जो तुम पाठकों को देना चाहोगे। नितान्त स्वच्छन्द व्यक्ति का जीवन क्या किसी के लिए अनुकरणीय हो सकता है ?’’
‘‘उनके बारे में जो कुछ हम जानते हैं वह हमारे बीच में ही रहे। दूसरे लोग उसे जानकर क्या करेंगे ? रहने दो, उसे लेकर क्या होगा ?

एक सज्जन तो अत्यन्त उग्र हो उठे। तीव्र स्वर में बोले, ‘‘कहे देता हूँ, मैं उनके बारे में कुछ नहीं बताऊंगा।’’
दूसरे सज्जन की घृणा का पार नहीं था। गांधीजी और शरद के सम्बन्ध में मैंने एक लेख लिखा था। उसी को लेकर उन्होंने कहा, ‘‘छिः, तुमने उस दुष्ट की गांधीजी से तुलना कर डाली !’’
एक बन्धु जो ऊंचे-ऊंचे पदों पर रह चुके थे मेरी बात सुनकर मुस्कुराये, बोले ‘‘क्यों इतना परेशान होते हो, दो-चार गुण्डों का जीवन देख लो, शरच्चन्द्र की जीवनी तैयार हो जाएगी।’’
इन प्रतिक्रियाओं का कोई अन्त नहीं था, लेकिन ये मुझे मेरे पथ से विरत करने के स्थान पर चुनौती स्वीकार करने की प्रेरणा ही देती रहीं। सन् 1959 में मैंने अपनी यात्रा आरम्भ की थी और अब 1973 है। 14 वर्ष लगे मुझे ‘आवारा मसीहा’ लिखने में। समय और धन दोनों मेरे लिए अर्थ रखते थे क्योंकि मैं मसिजीवी लेखक हूं। लेकिन ज्यूं-ज्यूं आगे बढ़ता गया, मुझे अपने काम में रस आता गया, और आज मैं साधिकार कह सकता हूं कि मैंने जो कुछ किया है पूरी आस्था के साथ किया है। और करने में पूरा आनन्द भी पाया है। यह आस्था और यह आनन्द, यही मेरा सही अर्थों में पारिश्रमिक है।
मुझसे पहले भी बंगाल के एक दो मित्रों ने इस क्षेत्र में प्रयत्न किये हैं। उनमें सर्वाधिक प्रामाणिक कार्य है श्री गोपालचन्द्र राय का। उन्होंने अत्यन्त परिश्रम के साथ शरदबाबू के जीवन को समझने की सामग्री जुटाने का स्तुत्य कार्य किया। मेरा प्रारम्भिक कार्य सन् 1965 तक समाप्त हो गया था। तभी उनकी लिखी ग्रन्थ-माला का पहला खंड प्रकाशित हुआ। इसमें शरत्-चन्द्र की जीवनी तथा उसी संबंध में कुछ दूसरी सामग्री है। मैं उनसे अपने काम की तुलना नहीं करना चाहूंगा। वे मुझसे बहुत पहले से काम कर रहे थे। हम दोनों की क्षमता और दृष्टि में भी बहुत अन्तर है।
वे बंगाली हैं और शरद बाबू के सम्पर्क में भी आ चुके हैं। इसके विपरीत मैं न तो बंगाली हूं और न मुझे शरत बाबू के दर्शन करने का सौभाग्य ही प्राप्त हुआ है। बंगला भाषा भी मैं अच्छी तरह नहीं जानता। इसलिए जिन लोगों से मैं मिला, उनमें से अधिकतर को यह बड़ा अजीब लगा कि एक बाहर का व्यक्ति शरद बाबू की जीवनी के संबंध में इतना परेशान है।
वे इस बात से प्रभावित हुए और उन्होंने बड़ी ईमानदारी से मेरी सहायता की। कुछ ने उपेक्षा की दृष्टि से भी देखा, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक नहीं थी। और यह भी अधिकतर मेरी खोज के प्रथम दौर में ही ऐसा हुआ था। बाद में तो जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे मेरे प्रति उन लोगों का स्नेह बढ़ता गया। अगर ऐसा न होता तो क्या यह काम कभी पूरा हो पाता ?

फिर भी कठिनाइयों का कोई अन्त नहीं था। कुछ मित्र थे जिन्होंने बहुत कुछ बताया लेकिन प्रमाणित करने से इनकार कर दिया। कहा, ‘‘आप बिना हमारा नाम दिये अपने रूप में इसका उपयोग कर सकते हैं।’’
इनमें ऐसे मित्र भी थे जिन्होंने मुझे चेतावनी दी कि यदि मैंने शरद बाबू के मुंह से कुछ ऐसा-वैसा कहलवाया या स्वयं ऐसा-वैसा लिखा तो उसका परिणाम बुरा भी हो सकता है। मुझे क्षमा नहीं मिलेगी। कुछ ऐसे भी थे जो स्वयं लिखना चाहते थे, लेकिन मुझे दुख है कि उनमें से बहुत कम ही ऐसा कर सके। फिर भी जिन्होंने किया उन्हीं के कारण किसी न किसी रूप में प्रामाणिक सामग्री सामने आई। इसका मुझे भी लाभ मिला।
उनके समकालीन कुछ ऐसे व्यक्ति मुझे मिले जो सचमुच उनसे घृणा करते थे। रंगून के एक सज्जन ने मुझसे कहा था, ‘‘वे एक स्त्री के साथ रहते थे। उनके पास बहुत कम लोग जाते थे। मैं उनका पड़ोसी था, लेकिन उनके कमरे में कभी नहीं गया। वे अफीम खाते थे और शराब पीते थे। वे एक निकृष्ट प्रकार का जीवन बिता रहे थे। और जानते थे, लेकिन ऐसे भी व्यक्ति थे जो उनके पास जाकर उन्हें पहचान सके थे। उन्हीं के माध्यम से मैं भी एक सीमा तक उनको पहचान सका। अफवाहों और किंवदन्तियों से भरे उनके जीवन को पूरी तरह पहचान पाना तो असम्भव जैसा ही है, लेकिन क्या सचमुच जो पास थे, वे उन्हें पहचानते थे ? उनके बहुत पास रहने वाले कई व्यक्तियों ने उनके सम्बन्ध में बिलकुल परस्पर विरोधी बातें बताईं। स्वयं उनके मामा और बालसख़ा श्री सुरेन्द्रनाथ गांगुली ने उनके बारे में जो दो पुस्तकें लिखी हैं उनमें परस्पर विरोधी तथ्य हैं। कभी-कभी तो मुझे लगता था कि कोई मुझे चुनौती देने वाला है कि शरच्चन्द्र नाम का कोई व्यक्ति इस देश में नहीं हुआ, कुछ अज्ञातनाम लेखकों ने स्वयं कुछ उपन्यास लिखे और शरच्चन्द्र के नाम से चला दिये।
यह धारणा सत्य ही है कि मनुष्य शरच्चन्द्र की प्रकृति बहुत जटिल थी। साधारण बातचीत में वे अपने मन के भावों को छिपाने का प्रयत्न करते थे और उनके लिए कपोलकल्पित कथाएं गढ़ते थे। कितने अपवाद, कितने मिथ्याचार, कितने भ्रान्त विश्वास से वे घिरे रहे ! इसमें उनका अपना योग भी कुछ कम नहीं था। वे परले दर्जे के अड्डेबाज़ थे। घण्टों कहानियां सुनाते रहते। जब कोई पूछता कि क्या यह घटना स्वयं उनके जीवन में घटी है, तो वे कहते, ‘‘न-न, गल्प कहता हूँ, सब गल्प, मिथ्या, एकदम सत्य नहीं।’’

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